नमस्कार, मेरा अधिकांश समय "सरकारी मकान" में ही बीता। स्कूल से कॉलेज तक मेरा परिवार सरकारी मकान में ही रहा। दक्षिणी दिल्ली के एक पॉश इलाके में हम रहा करते थे। घर के सामने ही 2 पेड थे , एक जामुन का और दूसरा नीम का। हम पहली मंजिल पर रहा करते थे और भूतल पर रहने वालो ने एक छोटा सा बगीचा बना रखा था, जो की चारो तरफ से फूलों वाली झ!डियों से घिरा हुआ था।
हम (मैं और मेरा भाई) स्कूल पैदल ही जाया करते थे और अक्सर मकानो के बीच में से होते हुए जाना पसंद करते। वहां ठंडक रहा करती और छाया भी। जब सर्दियों का मौसम आने को होता तब वहां के पेड़ो में छोटे छोटे सफ़ेद फूल आते थे , जिनमे से इलायची जैसी खुशबू आती थी, और ये खुशबू सब जगह फ़ैल जाया करती थी।
हल्की हल्की ठंड का वो एहसास और ये खुशबू दोनों जैसे एक दूसरे के पूरक थे। ठंड आने के साथ ही तैयारी शुरू हो जाती थी रामलीला दिखाये जाने की, वो भी बड़े परदे पर। हमारे घर के पास एक मैदान हुआ करता था, जहां रामलीला परदे पर दिखाई जाती थी और हम सभी दोस्त और भाई-बहन देखने जाया करते थे।
मैदान के बाहर ही मूंगफली और फुल्लों (पॉपकॉर्न) की खुशबू आती रहती थी, रेहड़ी वाले उसे ग़र्म करके बेचा करते थे। रात होते-होते, सब तरफ चहल-पहल कम हो जाती थी और मैं अपने भाई और बहन के साथ घर वापस आ जाता था। रास्ते में कोई डर कभी महसूस ही नहीं होता था। हमारे घर के नज़दीक ही एक छोटा हवाई अड्डा था, जहां पायलटों को प्रशिक्षण होता था।
मैं और मेरा भाई, उन विमानों को अक्सर अपनी छत के उपर से उड़ान भरते देखा करते थे। वहां रहते हुए हमें काफी समय तक कूलर तक की ज़रूरत महसूस नई हुई। दो कमरे ही इतने ठंडे रहा करते और जीना तो और भी ठंडा रहा करता था। हम दोस्तों की टोली पुरी छुट्टियां जीने में खेलते हुए ही बिता देती थी । उस समय ट्रम्प कार्ड, कॉमिक्स पढ़ना, कैरम बोर्ड, लूडो खेलना, ये सब किया करते । अक्सर हम ये शर्त भी लगाया करते थे की किसकी किक पेड की डाली पर लगे पत्ते को छु सकती है और इस चक्कर में गिर भी जाया करते थे। 😃😄😄
बाद में पिताजी को एक नया मकान आवंटित हुआ। तब तक मैं 11 वीं कक्षा में आ चुका था। वहां भी नये दोस्त बने। हम रविवार को क्रिकेट मैच खेला करते थे और एक दूसरे को घर के नीचे से आवाज़ देकर बुलाया करते। वो मैच तो जैसे इज्जत का सवाल हो जाता था। आपका कितना रुत्बा दोस्तों में होगा, ये आपकी बल्लेबाजी पे निर्भर था। वहां मैंने दुर्गा पूजा का बहुत आनंद लिया। पूजा शुरू होने से पहले ही, हमारी पूरी कॉलोनी में लाइट लग जाया करती थी. और वहां भी वो पेड़ थे जिनके फूलों से इलायाची वाली खुश्बू आया करती, वो भी सर्दियों के आने के साथ ही। रात को देर तक कॉलोनी मी घूमना, पूजा पंडाल में बैठना , वहां के पार्क, दोस्तों का हर छुट्टी के दिन इककट्ठा होकर मैच खेलना, घुमना सब याद आता है । इस विषय पर शायद शब्द कम पड़ जायें लेकिन बातें पूरी नही हो पाएंगी।
आज मैं एक निजी कॉलोनी में रहता हूँ और बहुत ज़्यादा याद करता हूँ उन दिनों को..जो मैंने बिताये, सरकारी मकान में............
तो दोस्तों कैसी लगी आपको यह कहानी ? ऐसी ही और कहानियो के लिए आते रहिये इस ब्लॉग पे.... "सिनेमा का हंगामा"
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